बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान एक नज़र में


प्रोफेसर बीरबल साहनी, एफआरएस, एक महान दूरदर्शी थे। उन्होंने वर्ष 1946 में ‘पुरावनस्पति विज्ञान’ को एक विज्ञान के रूप में स्थापित करने के लिए 'पुरावनस्पतिविज्ञान संस्थान' की स्थापना की, जिसमें पौधों के जीवन की उत्पत्ति एवं विकास, जीवाश्म ईंधन की खोज सहित अन्य भू-वैज्ञानिक मुद्दों को सुलझाने में संस्थान की क्षमता की परिकल्पना की।

शुरुआत में, संस्थान ने भूवैज्ञानिक समय अवधि के अंतर्गत पौधों के जीवाश्मों तथा उनसे संबंधित पहलुओं का अध्ययन करने पर बल दिया। हालांकि, संस्थान ने अपने अनुसंधान आयामों का दायरा बढ़ाया। वर्ष २०१५ में कार्यक्षेत्र को विस्तार देते हुए इसका नाम बदलकर (बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पेलियोसाइंसेज) कर दिया गया। जिसका मुख्य उद्देश्य एक पटल के तहत पुराविज्ञान को आगे बढ़ाने एवं देश की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रबलित रणनीतियों के साथ अधिक समग्र दृष्टिकोण को समायोजितकरना  है। वैश्विक परिवर्तन के बीच, नए व्यापक जनादेश का लक्ष्य है –

  • समय को आधार बनाते हुए जीवन की उत्पत्ति एवं विकास को समझना
  • वर्तमान एवं गहन भूवैज्ञानिक अवधि में जलवायु परिवर्तन को समझना
  • प्राचीन सभ्यता एवं मानव इतिहास को समझना
  • तेल एवं कोयला उद्योग के लिए अन्वेषण कार्यक्रमों में पुराविज्ञान का अनुप्रयोग

बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान मौलिक एवं प्रायौगिक अनुसंधान के रूप में एकीकृत नवीन विचारों के साथ एक समर्पित वैज्ञानिक टीम के माध्यम से अनुसंधान एवं विकास में उत्कृष्टता प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है। मुख्य शोध कार्य में भूवैज्ञानिक अवधि के आधार पर जैविक विकास की समझ शामिल है।

प्रीकैम्ब्रियन जीवन के विविधीकरण, फ़ाइलोजेनेटिक ढांचे में गोंडवाना एवं सेनोज़ोइक/ नूतनजीव वनस्पतियों की विविधता, वितरण, उत्पत्ति, एवं विकास के बारे में ज्ञान प्राप्त करने पर जोर दिया गया है, इसके साथ ही गोंडवाना तथा सेनोज़ोइक/नूतनजीव समय- स्लाइस के दौरान अंतःएवं अंतर-बेसिनल सहसंबंध और उनके आर्थिक उपयोग के लिए गोंडवाना कोयले तथा सेनोज़ोइक/नूतनजीव लिग्नाइट/भूरा-कोयला की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के लिए कार्बनिक/जैविकशैलविज्ञान पर कार्य करना शामिल है। बीएसआईपी सतह एवं उपसतह अवसादों के सहसंबंध, भू-रसायन विज्ञान, कशेरुकी पुराविज्ञान, पुराजीनोमिक्स तथा जीवाश्म ईंधन निक्षेपके लिए अनुकूल क्षेत्रों की खोज में मदद करने के लिए अनुक्रम जैवस्तरिकी चुंबकस्तरिकी और भूकालक्रम को शामिल करने के लिए लगातार अन्वेषण एवं विविधता लाने की तरफ प्रयासरत है। क्वाटर्नरी/चतुर्थमहाकल्प अवधि के दौरान जलवायु परिवर्तन एवं वनस्पति के बीच उसके संबंध को समझना भी बीएसआईपी में अनुसंधान का एक महत्वपूर्ण अंश है। प्राचीन डीएनए विश्लेषण का उपयोग करके प्राचीन सभ्यताओं की उत्पत्ति तथा प्राचीनता, मानव इतिहास एवं उसके पश्चात् के हस्तक्षेपों का अध्ययन भी किया जा रहा है। यह उल्लेख करना उचित है कि बीएसआईपी न केवल पूरे भारत में बल्कि ध्रुवीय क्षेत्रों (उत्तरीध्रुवी/आर्कटिक-दक्षिणध्रुवी/अंटार्कटिक) में भी कार्य कर रहा है।

यह कुछ प्रमुख अनुसंधान संस्थानों में शामिल है जहां उच्च स्तरीय अनुसंधान कार्य को सुविधाजनक बनाने के लिए एक ही छत के नीचे अत्याधुनिक सुविधाएं उपलब्ध हैं। संस्थान भू-रासायनिक विश्लेषणों के लिए टीएल/ओएसएल डेटिंग सिस्टम, आईआरएमएस, आईसीपी- एमएस, जीसी-एमएस, एक्सआरएफ, टीएफआईआर सिस्टम, पुराचुंबकीय प्रयोगशाला, डेंड्रोक्रनालजी प्रयोगशाला, कशेरुकी पुराजीवाश्म विज्ञान एवं प्रिपरेशन प्रयोगशाला, प्राचीन डीएनए प्रयोगशालाएं, एफई-एसईएम प्रयोगशाला, कन्फोकल लेजर और रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी (सीएलएसएम) प्रयोगशाला एवं औद्योगिक सूक्ष्मजीवाश्मविज्ञान प्रयोगशाला से सुसज्जित है। संस्थान में शीघ्र ही क्लम्प्ड आइसोटोप प्रयोगशाला, एम्बर विश्लेषण प्रयोगशाला जैसी सुविधाओं की शुरुआत हो जाएगी। भू-विरासत और भू-पर्यटन प्रवर्धन केंद्र (सीपीजीजी) भी रूप में आ चुका है। इसके अलावा, संस्थान का संग्रहालय जीवाश्मों का एक समृद्ध भंडार प्रदान करता है तथा यहां पर पुराविज्ञान पर आधारित साहित्य का एक समृद्ध संग्रह भी है।

संस्थान समय-समय पर राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक बैठकें आयोजित करता है और अंतरराष्ट्रीय ख्याति की पत्रिका 'जर्नल ऑफ पेलियोसाइंसेज' प्रकाशित करने के अलावा विशेष अवसरों पर कैटलॉग, एटलस आदि भी प्रकाशित करता है।

संस्थान, वर्तमान में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत आने वाले विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), के तत्वावधान में एक स्वायत्त अनुसंधान संगठन के रूप में कार्य कर रहा है।