कैंब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला


बीरबल ने पूरी पढ़ाई (पूर्ण शिक्षा), लाहौर, भारत में पहले मिशन और सेंट्रल मिडिल स्कूलों में तथा तदोपरांत जहाॅं उनके पिता रसायनविज्ञान में एक पद पर थे वहाॅं गवर्नमेंट कालेज में की। पंजाब विश्वविद्यालय की दसवीं की परीक्षा में संस्कृत में पहला स्थान और बारहवीं के विज्ञान में सूबे में दर्जा पाते हुए उन्होंने बहुत-सी शैक्षणिक योग्यताएं प्राप्त कीं।
संस्कृत के प्रति उनका झुकाव अंत तक रहा और बाद के सालों में तो वह वास्तव में इसके प्रति ज़्यादा निष्ठावान हो गए। 1911 में वह लाहौर से स्नातक हुए और उसी साल इम्मानुएल कालेज, कैंब्रिज में प्रवेश ले लिया।
बीरबल 1911 में कैंब्रिज से स्नातक हुए और जल्दी ही शोध के लिए जम एग। उन्होंने उस ज़माने के बहुत नामी-गिरामी वनस्पतिविज्ञानी, प्रेरणादायक, नेतृत्व एवं दिशा-निर्देश के अधीन अत्यंत रूचि से शोध की शुरूआत की। प्रो. ए.सी. सीवर्ड जीवित एवं जीवाश्म पादपों पर उसके लेखों को सुनने के प्रेरणा स्त्रोत थे किंतु एक स्त्रोत ने गौरव जोड़ दिया जब उनके प्रिय विद्यार्थी बीरबल का नाम गोंडवाना और अन्य पेड़-पौधों के अध्ययन में उल्लिखित था। प्रो. एवं श्रीमती सीवर्ड बीरबल के प्रति मृदु ख़याल रखते थे तथा सदैव स्नेही सीमाओं में लिखते थे। यह शिक्षक एवं उसके शिष्य के बीच के बजाय और गहरा व अति सुंदर नाता था तथा जिसे बीरबल ने बहुत सी अन्य चीजों के बजाए संजोया। कैंब्रिज में, केवल अभी छात्र के लिए भारतीय जीवित पादपों के बीरबल की रूचि और ज्ञान को वक़्त से पहले ही मान्यता मिल गई थी, लाॅसन की वनस्पतिविज्ञान की पाठ्य-पुस्तक जो कि आजकल इस विषय पर बृहत रूप से प्रयुक्त की जाती है को परिशोधित करने की साग्रह प्रार्थना की गई थी।
जीवाश्म पादपों पर उनके शोधों के लिए 1919 में उन्हें लंदन विश्वविद्यालय की डी.एस-सी. उपाधि से नवाज़ा गया। उसी वर्ष में घर लौटते समय भारत में पुरावनस्पतिविज्ञान का स्थान और ऊॅंचा करते हुए उन्होंने केवल अपने अन्वेषणों को ही जारी नहीं रखा बल्कि राष्ट्र के हर भाग से समर्पित छात्रों के समूह को भी अपने चहुंओर एकत्रित किया। भारत में समय से पहले ही उनकी जीवन-यात्रा के दौरान, बीरबल का प्रो. सीवर्ड ने अति अभिनंदन किया जब उन्होंने भारत से प्राप्त कुछेक जीवाश्म संग्रहणों का अध्ययन करने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि इस पर सबसे पहला अधिकार मेरे युवा शिष्य का है। अंततोगत्वा सामग्री बीरबल पर आ गई। अपने भविष्य के शोध के लिए इसने मार्ग प्रशस्त किया तथा इस प्रकार भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के साथ दीर्घ एवं चिरस्थायी संगति की शुरूआत हुई।
ऐसे बहुत-से अवसर रहे हैं जब बीरबल ने अपने गुरू जी जिनको उन्होंने सीमा से परे सम्मान एवं प्यार दिया, की भूमिका पर अच्छे कृत्य को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया है। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने उनके सम्मान में उनकी अर्ध प्रतिमा स्थापित करके उन्हें स्मरण किया है। कई पुरावानस्पतिक शोधों के अलावा उन्होंने पंजाब लवण पर्वतमाला की लवण श्रृंखलाओं की आयु तथा दक्कन पाश की आयु से संबद्ध महत्वपूर्ण लेखों को प्रस्तुत किया तथा जिन्हें उन्होंने प्रकाशित किया।
नए खोले गए लखनऊ विश्वविद्यालय का वनस्पतिविज्ञान विभाग के प्रथम आचार्य के रूप में उन्होंने 1921 में कार्यभार संभाला। उन्होंने अपने आपको जल्दी ही दिल और आत्मा से संगठन के कार्य में लगा दिया। अन्य अति व्यस्तताओं के बावजूद, अपने हाथों से जीवाश्म पादपों की पिसाई और तनु खंडों को बनाते हुए उन्हें अक्सर देखा जाता था। कठिन परिश्रम एवं प्रेरक आकर्षण से उन्होंने विश्वविद्यालय की साख बना दी जो जल्दी ही भारत में वानस्पतिक व पुरावानस्पतिक अन्वेषणों का पहला केंद्र बन गया।
भारतीय विज्ञानी को संयोगवश प्रथम प्रदान करने वाली एस-सी.डी. उपाधि प्रदान कर कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने उनके शोधों को मान्यता दी। जब उन्हें लंदन की राॅयल सोसाइटी का अध्येता चयनित किया गया तब उन्हें 1936 में ब्रिटिश का सर्वोच्च वैज्ञानिक सम्मान मिला। उन्हें क्रमशः 1930 एवं 1935, पांचवीं एवं छठी अंतराष्ट्रीय वानस्पतिक कांग्रेस के वानस्पतिक खंड का उपाध्यक्ष, वर्ष 1940 के लिए भारतीय विज्ञान कांग्रेस का महा अध्यक्ष; 1937-39 और 1943-44 में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, भारत का अध्यक्ष चुना गया। 1948 में उन्हें कला एवं विज्ञान की अमेरिकी अकादमी का विदेश सम्मानित सदस्य चुना गया। अंतर्राष्ट्रीय वानस्पतिक कांग्रेस, स्टाॅकहाॅम के सम्मानित अध्यक्ष के रूप में उनका चयन शीर्ष सम्मान के रूप में मिला।